-सैयद असदर अली-
हमेशा से माना जाता है दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुज़रता है, और यही बात इस राज्य के महत्त्व को बढ़ाती है। कहा तो यह भी जाता है की जिसने UP जीत लिया, उसने दिल्ली जीत लिया। तो आज बात UP की ही कर लेते हैं।
देश के 5 राज्यों में चुनावी बिगुल बजने के बाद, अब बारी है इन राज्यों की सियासत को बारीकी से समझने की। विधान सभा चुनाव वाले इन राज्यों में सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश को माना जा रहा है क्योंकि, वो देश का न केवल सबसे बड़ा राज्य है, बल्कि सियासी मायनो में भी इसका किरदार हमेशा से मत्वपूर्ण रहा है।
2014 के लोक सभा चुनाव में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला, बीजेपी ने राज्य में ऐसी हवा बनाई की दिल्ली भी उसकी हो गई । प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात से आ कर खुद को वाराणसी से उमीदवार बना कर पूरा माहौल ही भगवा कर दिया, जिससे की उनका न सिर्फ दिल्ली की गद्दी पर क़ब्ज़ा हुआ, बल्कि 2017 में उत्तर प्रदेश भी उन्ही का हुआ और उन्होंने योगी आदित्यनाथ को UP की कमान सौंपी।
अब एक बार फिर उप्र की सियासत गरमाई हुई है, क्योंकि राज्य में सबसे बड़े त्यौहार यानी चुनावों का वक़्त नज़दीक आ पहुंचा है।
कट्टर हिन्दुवादी सोंच और पार्टी में भी अपनी एक ख़ास तरह की पहचान रखने वाले मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ ने पुरे 5 सालों तक राज्य की जनता को अपनी सोंच की तरफ खींचने की पूरी कोशिश की। इस दौरान, मुज़फ्फरनगर का दंगा और मेरठ, कैराना से हिन्दुओं का पलायन करना, ये ऐसे हादसे रहे, जिसने योगी और भाजपा की सियासत को और भी धार दे दिया। इसी दम पर एक तरफ जहाँ, भाजपा दोबारा से योगी आदित्यनाथ को राज्य के मुख्य मंत्री के तौर पर पेश कर वोट को फिर से पोलराइज़ कराने की जुगत में है, तो वहीँ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से उसको कांटे की टक्कर का सामना भी करना पड़ रहा है।
बल्कि ये कहना ग़लत नहीं होगा की समाजवादी पार्टी अपने पिछले कार्यकाल में किये गए अपने शानदार काम की वजह से राज्य में खासी चर्चा बटोरती रही है और अब जबकि दोबारा से पार्टियों के इम्तिहान का वक़्त आया तो अखिलेश को उनके अच्छे कामो की वजह से नंबर भी अच्छे मिलते दिखाई दे रहे हैं। अखिलेश का ’22 में बाइसाइकिल” का नारा भी सुर्ख़ियों में बना हुआ है।
हाल में अखिलेश ने भाजपा को उस समय ज़बरदस्त झटका दे गए जब उनकी साइकल पर सवार होने, योगी कैबिनेट के कई दिग्गज मंत्री, विधायक और कई अन्य भाजपा नेता भी अखिलेश के साथ हो लिए। इनमे से सबसे बड़ा नाम स्वामी प्रसाद मौर्या का है, जिन्हे उत्तर प्रदेश की सियासत का मौसम वैज्ञानिक भी कहा जाता है। यानी मौर्या को समय से पहले ये मालूम हो जाता है की अगली बार सत्ता में कौन आ रहा है, और वो उसी का दामन थाम लेते हैं। इस बार मौर्या ऐन चुनाव के समय भाजपा को खरी खोटी सुनाते हुए अखिलेश की साइकल की सवारी करने निकल पड़े और दावा किया की अगली बार अखिलेश, फिर से मुख्य मंत्री बनेंगें।
राज्य की शान्ति पसंद जनता का भी मानना है की इस बार भाजपा को मुहं की खानी पड़ेगी क्योंकि अपने कार्यकाल में योगी के कई नेता बेलगाम हो कर ज़ात पात की सियासत को बढ़ावा देते नज़र आये, और सीएम योगी सारे मामलों पर चुप्पी साधे बैठे रहे। जिससे की ऐसे लोगों को और भी ज़्यादा बल मिला और वो कई बार हदें पार करते हुए भी दिखे। इसके इलावा महंगाई और बेरोज़गारी को कम करने में भी राज्य की जनता योगी की विफलता मानती है। हाँ, अगर पुरे 5 वर्षों तक किसी का बोल बाला रहा, तो वो भगवाधारियों का और उनकी कारगुज़्ज़ारियों का।
इन सब से त्राहिमाम करती जनता अब उत्तर प्रदेश में बदलाव की तरफ तेज़ी से बढ़ती दिख रही है, जिसमे उसके लिए सिर्फ एक ही मज़बूत दावेदार दिख रहा है वो है समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन दल। अखिलेश ने जयंत चौधरी की राष्ट्रीय लोक दल, ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव समाज पार्टी, शिवपाल की प्रगतिशील समाज पार्टी के इलावा कुछ और छोटे दलों के साथ मज़बूत गठबंधन बनाया है। जिसकी बदौलत माना जा रहा है की योगी की राह में रुकावट पैदा होना पक्का है।
समाजवादी पार्टी के इलावा, राज्य में बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस भी चुनावी मैदान में है। लेकिन मायावती इस बार के विधान सभा चुनावों को लेकर बहुत गंभीर नहीं दिख रही, इस लिए बसपा कि दावेदारी में जान कम दिखती है। अब रही बात कांग्रेस की, तो प्रियंका और राहुल गाँधी की गर्मजोशी से राज्य की राजनीती में एक्टिव होने पर पार्टी को ज़रूर मज़बूती मिल रही है, जिससे की पहले के मुक़ाबले कांग्रेस बेहतर पोज़िशन में मानी जा सकती है। लेकिन मंज़िल से वो अभी भी कोसों दूर ही दिखती है।
अब बात कर लेते हैं “भाईजान” यानी असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम की। ओवैसी की पार्टी महारष्ट्र, बिहार और बंगाल होते हुए अब एक बार फिर से उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में कूद पड़ी है। यह 2014 के महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव की बात है, ओवैसी की पार्टी AIMIM ने राज्य के चुनाव में धमाकेदार एंट्री की थी। पहली बार उनके दो विद्याक जीते थे, लेकिन उन पर सबसे बड़ा आरोप यह था कि मुस्लिम वोटों का बंटवारा कराने के लिए उन्होंने बीजेपी की फंडिग पर चुनाव लड़ा और बीजेपी की रणनीति को कामयाब बनवाया। उस चुनाव में बीजेपी कांग्रेस-एनसीपी को सत्ता से बाहर कर खुद सरकार बनाने में कामयाब हुई थी। उसके बाद के चुनाव में भी महारष्ट्र में ओवैसी कुछ ख़ास नहीं कर सके और शिव सेना-कांग्रेस-एनसीपी की सरकार ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया, तब शायद ओवैसी को निराशा झेलनी पड़ी। इसके बाद बिहार की तरफ बढे, जहाँ सीमांचल इलाके में पांच सीटें जीतीं, और माना जाता है की ओवैसी ने इसके इलावा कम से कम 15 से 20 सीटों पर आरजेडी-कांग्रेस वाले महागठबंधन के वोटों में सेंध लगा कर उनकी हार सुनिश्चित किया। यही 15 -20 सीटें गंवा देना, तेजस्वी को महंगा पड़ा और वो राज्य की सत्ता के नज़दीक पहुँच कर भी दूर रह गए।
बंगाल में ओवैसी की इस चाल को बखूबी पहचाना गया की फंडिंग किसी की भी हो, वो सेक्युलर वोट में सेंधमारी का रोल बहुत ही मज़बूती से निभाते हैं और साफ़ ज़ाहिर है की उनके इस कारनामे का फायदा किसे पहुंचेगा। बंगाल से ओवैसी को उलटे पैर वापस आना पड़ा, उसके बाद ओवैसी की नज़र UP की तरफ पड़ी, जहाँ योगी और अखिलेश के बीच सीधा मुक़ाबला है। उप्र में ओवैसी न बसपा का कुछ बिगाड़ सकते, न कांग्रेस का, क्योंकि इन पार्टियों के पास खोने को कुछ है ही नहीं, ओवैसी UP में अगर किसी का नुकसान कर सकते हैं, तो वो सिर्फ और सिर्फ समाजवादी पार्टी ही है।
ओवैसी से जब इस बाबत पूछा जाता है तो वो कहते हैं की हम भी एक राजनितिक दल हैं, हमारा पूरा हक़ है की हम अपनी पार्टी को आगे बढ़ाएं और उसको मज़बूत करें। फिर तो ओवैसी साहब से एक सवाल तो बनता ही है की वो अपनी पार्टी को बढ़ाने की शुरुआत तेलंगाना जो की उनका गृह राज्य है, वहां से क्यों नहीं करते।
ओवैसी का जो गृह राज्य तेलंगाना है, और बांटवारे से पहले आंध्रप्रदेश, इस पुरे बड़े इलाक़े में भी ओवैसी को सिर्फ और सिर्फ हैदराबाद तक ही स्वीकार किया जाता है। हालांकि ऐसा नहीं कि मुस्लिम वोटर्स केवल हैदराबाद तक ही सिमित हैं, लेकिन ओवैसी सिर्फ हैदराबाद शहर की 8 विधान सभ सीटों पर ही चुनाव लड़ते हैं, यहीं से उनके 6-7 विधायक चुन कर आते हैं। इसके इलावा, पुरे आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में ओवैसी की पार्टी शून्य है।
फिर एक प्रश्न ओवैसी से यह है की वो अपनी पार्टी AIMIM को पहले अपने गृह राज्य में ही मज़बूत करने की क्यों सोंचते हैं। इसका जवाब स्पष्ट है क्योंकि उनकी नज़र हर उस जगह होती है, जहाँ सेक्युलर पार्टियां ख़ासी मज़बूत नज़र आती हैं, ताकि, सेक्युलर पार्टी के दबदबे को कम करके, दूसरों को फायदा पहुँचाया जा सके। ओवैसी ख़ास ऐसी सीटें चुनते हैं जहाँ, मुस्लिम वोट से ही फैसला संभव है, ताकि सेक्युलर पार्टी के वोटों में ज़्यादा से ज़्यादा सेंधमारी हो सके और उन्हें नुकसान पहुंचाया जा सके। इसी वजह से उन्हें वोट कटवा कहा जाता है।
मुस्लिम समाज अगर कांग्रेस और सपा – बसपा जैसे दलों के बजाय ओवैसी का वोट बैंक बन गया, तो पोलराइज़ेशन को और भी बढ़ावा मिलेगा। जिसके बाद इस पार या उस पार वाली लड़ाई होगी और ज़ाहिर है, जब गिनती कुल संख्या के आधार पर होगी, तो ऐसे में सेकुलर पार्टियां पीछे रह जाएँगी और परचम भगवा ही फहराएगा।
अगर आंकड़ों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी 19.30 फीसदी है. अब तक मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस में बंटते रहे हैं। चूँकि, कांग्रेस और बसपा पहले के मुक़ाबले कमज़ोर हुई हैं, इसलिए इस वोटबैंक पर फिलहाल समाजवादी पार्टी की पकड़ मज़बूत लगती है। ऐसे में अगर एआईएमआईएम राज्य की राजनीती में दखल देती है, तो इन्हीं वोटों में और बंटवारा होगा। नुकसान का प्रतिशत क्या होगा, ये तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन एक बात पक्की है की अगर ऐसा हुआ तो ये नुकसान सिर्फ और सिर्फ अखिलेश की समाजवादी पार्टी का ही होगा और ओवैसी की जोशीले, भड़काऊ और जज़्बाती भाषणों का फायदा जिसका होगा वो तो पूर्णतः स्पष्ट है।
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Khabar mantra anti bjp aur pro SP hai. Wo ye maan baitha hai ki SP should only get muslim votes without getting anything concrete in return.
Khabar mantra ko khabar chape kisi party ki pairvi na kare.