पश्चिमी बंगाल, आसाम, केरल तमिलनाडु और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इन पांचों राज्यों में 27 मार्च से चुनाव होंगे। दो मई को नतीजे आएंगे। हैरत की बात यह है कि बंगाल में आठ चरणों में चुनाव क्यों कराए जा रहे हैं ? बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस फैसले पर विरोध जताया है और कहा कि चुनाव आयोग ने भाजपा के इशारे पर वोटिंग की तारीख तय की है। उनका ऐतराज है कि आखिर एक ही जिले में तीन चरणों में चुनाव की क्या जरूरत है ? दरअसल यह सब अमित शाह के चुनावी दौरे को देखते हुए किया गया है। हालांकि चुनाव आयोग ने बंगाल में हिंसा और कोविड के तहत आठ चरणों में चुनाव कराने की बात कही है।
इस हकीकत से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बंगाल को फतह करना मोदी और अमित शाह की सियासी नाक का सवाल है। देश में कोरोना के हालात, किसान आंदोलन, नौजवानों की बेरोजगारी, पेट्रोल की बढ़ती कीमतें और महंगाई की लहरों से भाजपा की कश्ती डोल रही है। अगर बंगाल फतह हो गया तो मोदी की सत्ता को नया जीवनदान मिल जाएगा। अमित शाह के पचास वर्षों तक हुकूमत करने के दावे में जान पड़ जाएगी। चुनांचे ममता बनर्जी के किले को फतह करने के लिए भाजपा साम, दाम, दंड, भेद हर तरह की बिसात बिछा चुकी है। प्रश्न यह है कि भाजपा का बंगाल जीतने का सपना पूरा होगा या फिर यह भी मुंगेरी लाल का सपना साबित होगा।
मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि बंगाल इकलौता राज्य है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत, सभ्यता और मातृ भाषा के सम्मान के आगे किसी भी राजनीति, किसी भी दबाव यहां तक धार्मिक ताकतों की भी नहीं सुनता। बंगला देश जो कभी वृहत बंगाल का हिस्सा था जो एक अरसे तक पाकिस्तान का अंग बना रहा। मगर एक ही धर्म और एक ही कौम के बावजूद भाषाई और तहजीबी भेद के बिना 1971 में पाकिस्तान से अलग होना इसका प्रतीक है कि बंगाल अपनी विशेष पहचान को नहीं खो सकता है। सुभाष चंद्र बोस, रविन्द्र नाथ टैगोर, काजी नजरुल अस्लाम, अमृता सेन अभिषेक बनर्जी आदि महान व्यक्तिव को परवान चढ़ाने वाला बंगाल अपनी माटी में ऐसा इंकलाबी खुशबू रखता है, जो अपने से मोहब्बत, अपनी माटी से मोहब्बत, अपनी तहजीब से मोहब्बत के साथ-साथ रवादारी और वफादारी का भी पैगाम देता है। यही वजह है कि बंगाल में कभी भी नफरत के बाजीगरों को पनाह नहीं मिली। बंगाल का किला कभी कांग्रेस तो कभी लेफ्ट तो कभी ममता के अधीन रहा है। मगर अब दौर बदल चुका है। भाजपा बंगाल में वही तिकड़म आजमा रही है, जिसने तेजस्वी की आंधी में भी भाजपा-जदयू का चिराग जला दिया। अब यह बात है कि यह चिराग कब बुझ जाए। परंतु सवाल तो यह है कि ममता के बंगाल में बिहार जैसा तिकड़म कामयाब होगा ? यूं तो पांच प्रांतों में चुनाव हो रहे हैं लेकिन बंगाल एक ऐसी रणभूमि बन चुका है, जहां धर्म और मजहब और भावनाओं की गट्ठर लिये वोटों के महारथी पहुंच चुके हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के साथ योगी समेत छह मुख्यमंत्रियों के अलावा 32 केंद्रीय मंत्रियों और राजनेताओं की फौज को बंगाल पहुंचने का आदेश दिया चुका है। भाजपा राम और नागरिकता कानून के बिल पर ममता के किले को फतह करना चाहती है। उधर ओवैसी भी मुसलमानों का दुखड़ा लेकर ममता बनर्जी की खाट खींचने के लिए बंगाल पहुंच चुके हैं। चुनाव से पूर्व ही यहांं जेपी नड्डा और अमित शाह कई बड़ी बड़ी चुनावी सभाएं कर चुके हैं। 68 फीसद बहुसंख्यकों को भगवा नशा पिलाने की बिसात बिछ चुकी है, जैसा कि मैंने कहा कि भाजपा यहां साम, दाम, दंड भेद मतलब हर सतह तक जाने को तैयार है। परिणाम यह है कि टीएमसी के कई विधायक और नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं। भाजपा बंगाल में राम के नाम पर नागरिकता कानून के नाम पर मुस्लिम तुष्टीकरण के नाम पर विशेषकर मोदी के नाम पर बंगाल को जीतना चाहती है। मगर उसे सबसे बड़ा खतरा यहां के 32 फीसद मुसलमानों से है, जिसमेें अधिकतर ममता के समर्थक हैं। बाकी कांग्रेस और लेफ्ट के साथ हैं। बंगाल के मुस्लिम बहुल जिले में मुर्शिदाबाद के 67 फीसद, मालदा के 52 फीसद, गिनाजपुर के 40 फीसद, वीरभूम के 35 फीसद, दक्षिणी 24 परगना के 36 फीसद, कूच बिहार के 67 फीसद मुस्लिम वोटरों का थोक वोट ममता बनर्जी, कांग्रेस और लेफ्ट को मिलता रहा है। अब इन्हीं क्षेत्रों पर भाजपा की नजरें हैं। मुस्लिम वोट कैसे तितर-बितर हो, उसके लिए वह जाल बिछा रही है। क्योंकि वह अच्छी तरह समझती है कि पश्चिमी बंगाल की राजनीति को मुसलमान ही तय करेंगे।
बंगाल की 294 विधानसभा सीटों में 90 सीटें ऐसी हैं कि जहां मुस्लिम वोटर निर्णायक रोल अदा करते हैं। इसके अलावा 10 सीटें ऐसी हैं, जहां ममता के सिवा किसी की दाल नहीं गलती और अब तो सीएए के मुद्दे के बाद मुस्लिम मतदाताओं को टीएमसी से बड़ी आशाएं हैं। आज भी उसी उम्मीद ने मुसलमानों को टीएमसी से जोड़े रखा है। लेकिन अब उन्हीं मुस्लिम बहुल इलाकों में ओवैसी के आगमन से मुस्लिम मतदाताओं में बिखराव की चिंता जताई जा रही है। मैं इससे सहमत नहीं हूं जैसा कि मैं उपरोक्त बता चुका हूं कि बंगाल की माटी में ऐसी वफादारी है कि वहां की जनता नुकसान उठाने के बावजूद अपने नेता का साथ नहीं छोड़ती। यही वजह है कि ममता के गत दो दौर 213-216 टीएमसी की सीटें तथा वोट दर 39 फीसद से कम ही नहीं हुआ है। 2016 के विधानसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद उनका वोट प्रतिशत 40 फीसद हो गया। भाजपा के मात्र 3 विधायक विधानसभा का मुंह देख पाए। यह बात और है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल से भाजपा के 18 सांसद चुन लिये गये। भाजपा की वोट दर जो 14 थी वह 40 फीसद हो गई।
कांग्रेस और लेफ्ट का खेमा उखड़ गया, लेकिन राज्य स्तर पर बंगाल की जनता ने मोदी पर ममता को ही तरजीह दी । वैसे भी लोकसभा में भाजपा को जीत और विपक्ष की हार की असल वजह गठबंधन और हौसले की कमी थी और आज भी भाजपा को हराने का विपक्ष का हौसला इतना मजबूत नहीं दिखाई देता। सीपीएम, कांग्रेस एक गठबंधन बनाकर चुनाव जरूर लड़ रहे हैं। क्या ही बेहतर होता कि वह पुरानी बातें भूलाकर ममता के साथ होते और भाजपा को एक मजबूत मोर्चा के साथ चुनौती देते। मगर ऐसा नहीं दिखाई देता। सीपीएम और कांग्रेस के भी वोट मुस्लिम बहुल इलाकों के हैं। भाजपा उन्हीं मुस्लिम इलाकों में वोटों की स्ट्राइक करने की तैयारी कर रही है, लेकिन भारत की सेकुलर राजनीति के लिए जो सबसे बड़ी स्ट्राईक नजर आ रही है वह असदुदीन ओवैसी हैं, जिनसे भापजा को बड़ी आशाएं हैं कि वे बिहार की तरह यहां भी भाजपा की सत्ता का परचम लहराने में मदद करेंगे।
ममता बनर्जी हवाई चप्पल और मामूली साड़ी पहनने वाली एक जमीनी नेता हैं। उनकी जमीन खिसकाने के लिए धर्म और हिंदुओं के शोषण की सेंध लगाई जा रही है। राम के सहारे बंगाल जीतने की तैयारी चल रही है। बंगाल भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष के द्वारा राम को दुर्गा से ऊपर बताना बंगाल की जनता को हजम नहीं हुआ है। दूर्गा और काली बंगाल की सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान की प्रतीक हैं। चुनांचे राम की सियासत बंगाल में फेल हो रही है। भाजपा नई जमीन तलाश कर रही है जो उसे नहीं मिलती दिखाई दे रही है। उसकी नजरें अब बंगाल की 90 सीटों पर है, जहां के मुस्लिम वोट का बिखराव ममता को सत्ता से रोक देगा। भाजपा को हिन्दी बेल्ट से भी आशाए हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश से आए लोग भी हकीकत को समझ रहे हैं। देश की जो दुर्दशा है वह देख रहे हैं। किसान आंदोलन की आंच भी बंगाल पहुंच रही है। ऐसे स्थिति में ओवैसी भाजपा के लिए संकटमोचक नजर आ रहे हैं।
यूं तो ओवैसी की बहुत सारी बातें और मांगें मुनासिब भी होती हैं लेकिन उन मांगों को उठाने का अंदाज और उनका उद्देश्य कहीं न कहीं अप्रत्यक्ष तौर पर भाजपा को फायदा पहुंचाता है। यह हमने उत्तर प्रदेश में देखा, महाराष्ट्र में देखा, झारखंड में देखा अभी ताजा ताजा बिहार में भी देखा। यह भी सच है कि ओवैसी की बातें मुस्लिम युवकों के एक हिस्से को आकर्षित करती हैं, लेकिन एक बड़ी तस्वीर कर नजर डाली जाए तो इन बातों से नुकसान मुसलमानों का ही होता है। बंगाल में भी ऐसी सूरत नजर आ रही है। उन्होंने प्रसिद्ध दरगाह फरफरा शरीफ के सज्जादा नशीन अब्बास सिद्धीकी से हाथ मिलाया है। जो नई पार्टी बना चुके हैं, जिनका अपने इलाके में काफी वर्चस्व है। ओवैसी को उम्मीद थी कि वह सिद्धीकी से हाथ मिलाकर मुस्लिम वोटों पर अपनी पकड़ बना सकते हैं। मगर अब्बास सिद्धीकी ने हालात को समझा। उन्होंने लेफ्ट और कांग्रेस के गठबंधन से हाथ मिलाकर उन्हें झटका दे दिया।
ओवैसी बंगाल में अकेला चना कैसे फोड़ेंगे। यह अलग सवाल है ? बहरहाल बंगाल में जमहूरियत को बचान के लिए सबसे बड़ी लड़ाई चल रही है। ऐसे में क्या बंगाल के मुसलमान अपने राजनीतिक परिपक्वता का सही इस्तेमाल करते हैं ? देश में उन्हें सेकुलर सरकार चाहिए। या भाजपा के जरिये खड़े किये गये लोग जो ममता को नुकसान पहुंचा सकते हैं, उनको नजरंदाज कर देंगे। भाजपा के पास अमित शाह जैसे रणनीतिकार जरूर हैं लेकिन बंगाल में भाजपा का कोई दबंग नेता नहीं है। जो भी आए हैं उधार के हैं। जनता उन्हें अच्छी तरह जानती है। आज भी ममता का मां-माटी-मानुष का नारा बंगाल की जनता का बहुत सहारा है। एंटी कम्बेंसी और अन्य खामियों के बावजूद ममता का पलड़ा भारी दिखाई देता है। ओपीनियन पोल में टीएमसी सबसे बड़ी पार्टी दिखाई गई है। बंगाल की सेकुलर धरती से यही आवाज उठ रही है।
बकौल शायर-
“सियासत अपना रुख इतना कड़ा मत कर
इंसानियत को अब भगवा और हरा मत कर”
मंथन.. सैयद फैसल अली
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